गुरुवार, 12 नवंबर 2015

महापर्व छठ

महापर्व छठ
संपूर्ण भारत में सूर्य के उपासना का महापर्व छठ पूरे धूम-धाम से मनाया जा रहा है। डाला छठ, सूर्य षष्ठी, छठी मईया, छठ पूजा जैसे कई नामों से विख्यात इस पर्व में प्रकृति के साक्षात् देव सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य देव को पवित्र जल द्वारा पूजित कर जीवन के आधारभूत दो तत्वों के सामंजस्य के महत्व को स्थापित किया जाता है। केवल पूर्वांचल में कभी प्रचलित रहे इस पर्व को अब पूरे भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मनाया जाता है। साल 2015 में यह पूजा 15 नवंबर से लेकर 18 नवंबर तक मनाया जाएगा। लोकआस्था के इस पर्व को संपूर्ण बिहार, झारखंड एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यतः मनाया जाता था। बदलते समय के साथ पूर्वांचल वासियों के प्रवास ने इस पर्व को संपूर्ण भारत के अलावा विदेश के कई हिस्सों में भी प्रसारित किया है।

यह व्रत पुरुष और महिला दोनों के द्वारा किया जाता है लेकिन व्रतियों में महिलायें ज्यादा होती है। सबसे पहले दिन को नहाय-खाय कहा जाता है। सबसे पहले इस दिन व्रती आम के पेड़ की टहनी से दातुन (ब्रश करना) करते है। फिर स्नान कर अरवा चावल का भात, चने की दाल और कद्दू की देसी घी में बनी बिना मसाले वाली सब्ज़ी ग्रहण करते है। दूसरे दिन को खरना कहा जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन का निर्जल उपवास करते है। सूर्यास्त के पश्चात रसियाव और रोटी के साथ फल, मूली और अदरक का प्रसाद सूर्य देव को अर्पित करने के बाद इसी प्रसाद को एक बार ही ग्रहण करते है। इस दिन व्रती पूरे दिन निर्जल व्रत रखते हैं और सूर्यास्त के पश्चात् प्रसाद ग्रहण करतें है। रसियाव गुड़ और चावल (कई जगह दूध भी मिलाते हैं) को मिला कर बनाया जाता है। तीसरे दिन पहले अर्ध्य या संध्या अर्ध्य का होता है। इस दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। अर्ध्य में फलों के साथ कसार और ठेकुआ मुख्य प्रसाद होता है। चौथे और आखिरी दिन उदय होते सूर्य को अर्ध्य देकर व्रत का समापन होता है। विदित् हो कि दूसरे और तीसरे दिन व्रती निर्जल व्रत रखते है और चौथे दिन अर्ध्य देने के बाद व्रत का समापन करके ही अन्न या जल ग्रहण करते है।
यह पर्व मूलतः पवित्रता और शुचिता का प्रतिक है। पूरे पर्व के दौरान शुद्धता का विशेष ख्याल रखा जाता है। पूजा के पहले पूरे घर की सफाई करने के साथ ही आसपास के इलाके की भी सफाई की जाती है। इस पूजा के करने का वैज्ञानिक, सामजिक, मानवीय और धार्मिक आधार है। सूर्य प्रकृति के ऊर्जा के स्त्रोत है और उनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। सूर्य और जल दोनो हीं जीवन का आधार हैं और इनसे ही जीवन की उत्पति को विज्ञान भी प्रमाणित करता है। छठ पूजा में सूर्य की उपासना किसी जलस्त्रोत यानि तालाब, नदी या कुण्ड के किनारे ही की जाती है। इस तरह से पूजा के द्वारा जीवन में ऊर्जा का संचार बना रहे इस की कामना की जाती है।
सामाजिक आधार की बात करें तो इसमें इस्तेमाल की जाने वाली सारी सामग्री सामाज के अलग वर्गों से आती है। बांस के दउरा, डगरा, डगरी, सूप इत्यादि समाज के सबसे पिछड़े जाती हरिजन यानि डोम से लिया जाता है। मिटटी के बने दिये और कोशिया कुम्हार से लिए जाते है। फूल-माला माली से लिए जाते है। इस तरह से समाज के दबे कुचले तबको के द्वारा बनाए सामग्री के बिना पूजा संपूर्ण हो ही नही सकती है। सामाजिक समरसता का इससे बेहतर उदाहरण किसी भी पर्व में नहीं दिखता।
मानवीय आधार की बात करे तो इस व्रत में भीख माँग कर पूजा करने का चलन भी पाया जाता है। इस रिवाज़ के द्वारा मनुष्य के सबसे बड़े अवगुण अहंकार को मिटा कर समर्पण का भाव जगाया जाता है। यह व्रत समाज के किसी ख़ास वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखता। समाज के हर जाति, वर्ण और समुदाय के लोग इस व्रत को करते है। चाहे ग़रीब हो या अमीर, अगड़ी जाति का हो या पिछड़ी जाति का हो, सभी सामान रूप से इस व्रत को करते है और इस व्रत को करने में हैसियत कभी आड़े नहीं आता। लेकिन इस पर्व द्वारा सबसे अलग और एक महत्वपूर्ण सन्देश दिया जाता है। सबसे पहले अस्ताचलगामी सूर्य की पूजा कर समाज को ये बताया जाता है कि हमें अपने वृद्ध जनों की पूजा सबसे पहले करनी चाहिए। हमारी वो पीढ़ी, जो अब अस्त हो रही है उस का ख्याल रखना हमारा पहला कर्तव्य है।  इसके बाद उगते हुए सूर्य की पूजा कर आने वाली पीढ़ी के स्वागत करने के सन्देश दिया जाता है कि ये पीढ़ी भी हमारे लिए सामान रूप से महत्वपूर्ण है। इस सन्देश के द्वारा समाज की एक बुराई, केवल उगते सूर्य की पूजा की जानी चाहिए, को समाप्त करने का आह्वान किया जाता है।
इस व्रत के करने के पीछे कई धार्मिक प्रसंग मौजूद है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के आधार पर प्रकृति देवी के एक अंश को देवशेना कहा जाता हैं ! देवशेना मातृका देवियों में सबसे श्रेष्ठ देवी मानी जाती हैं जो समस्त लोकों के बालकों व् बालिकाओं की रक्षिता देवी हैं। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी को षष्ठी देवी और छठी मैया/मईया के नाम से भी जाना जाता हैं। षष्ठी देवी माँ या छठी मैया प्रजनन व् विकास की देवी भी मानी जाती हैं। पुराणों में वर्णित माँ कात्यायनी भी इन्ही देवी स्वरुप हैं और जिन्हें स्कन्द माता के नाम से भी जाना जाता हैं। छठी मैया और सूर्य देव दोनों की समायोजित पूजन व् आराधना सूर्य षष्ठी पूजन व् व्रत हैं । महाभारत में वर्णित कई आलेखों को देखें तो सर्वप्रथम यह व्रत कुंती-पुत्र कर्ण द्वारा किये जाने का उल्लेख मिलता हैं।
प्राचीन लेकिन वर्तमान में भी प्रचलित छठ पूजा का ये व्रत अब भारत के उन क्षेत्रों में भी प्रचलित हो चला है जहाँ कभी ये अनसुना और अनजाना था। इस महापर्व की महता इसी से स्थापित होती है। उम्मीद है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष इस व्रत के जरिये दिए जाने वाले सन्देश को समझेगा और अपने जीवन में समाहित करेगा। जय छठी मैय्या!


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें