शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

मीडिया की बदलती भूमिका

मीडिया की बदलती भूमिका
23/10/2015, नई दिल्ली। अभी दो तीन दिन पहले एक विडियो इंटरनेट पर चलन में था जिसमें भाजपा अध्यक्ष एक निजी चैनल के पत्रकार को लगभग डांट रहे थे। कल एनडीए सरकार के एक मंत्री ने एक बयान दिया और जब मीडिया उनके पीछे पड़ गया तो उन्हें सफाई पेश करनी पड़ी। आज देश में हर दिन एक घटना होती है और मीडिया बाकी खबरों को छोड़कर सिर्फ और सिर्फ उसी घटना के पीछे पड़ जाता है। हालिया उदाहरण उत्तर प्रदेश के दादरी की घटना का है जिसने करीब दस दिनों से ज्यादा सुर्खियां बटोरी। ऐसी ही एक घटना शीना बोरा हत्याकांड की थी जिसमें मीडिया ट्रायल के आरोप लगे। सवाल ये उठता है कि क्या मीडिया अतिरंजना कर रहा है?

मीडिया में पिछले 20 वर्षों में जबरदस्त बदलाव आया है। टेलिविजन और इंटरनेट जैसे माध्यम ने बड़ी तेजी से लोगों के बीच पहुँच बनायी है। आज टीवी चैनलों में दर्शकों के बीच सबसे पहले समाचार पहुँचाने की होड़ लगी है तो इंटरनेट पर खबरें सोशल मीडिया के जरिये पहले पहुँचने लगी है। इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने मीडिया पर बेहद खतरनाक असर डाला है। मीडिया सिर्फ अपने फायदे के लिए काम कर रहा है, सरोकारी पत्रकारिता कहीं खो गई है। मीडिया और मीडियाकर्मी जनसंचार के मौलिक सिद्धांत को भूल गये हैं। पत्रकार होने के नाते मैं जानता हूँ कि फैसला देना मेरा काम नहीं है वो जनता का काम है, लेकिन अधिकांश पत्रकार ये करते हैं। हमें जनसंचार के गेटकीपींग थ्योरी और कल्टीवेशन थ्योरी को याद करने की जरूरत है जो पत्रकारिता के मानकों को परिभाषित करता है। हमने विकास की पत्रकारिता करने की बजाय सनसनी फैलाने की पत्रकारिता अपना ली है। मीडिया की बहुत पुरानी कहावत रही है कि सेक्स, क्राइम और बॉलीवुड हमेशा बिकता है। लेकिन नये जमाने और नये तकनीक से लैस होने के बावजूद हम आज भी उसी सिद्धांत पर चल रहें है। एक चैनल द्वारा शीना बोरा हत्याकांड में आरोपित इंद्रानी मुखर्जी के 24 घंटो का ब्यौरा देना शुरू कर दिया गया था। कइयों ने दादरी हत्याकांड पर लगातार 10 दिनों से ज्यादा प्राइमटाइम और सुर्खियां बनाई। ये सर्वथा अनुचित था और है। देश में अनेक मुद्दे है चर्चा के लिए – कहीं कोई भूख से मर रहा है तो कहीं कोई अत्याचार का शिकार हो रहा है। देश में भ्रष्टाचार एक अहम मुद्दा है तो साथ में पर्यावरण और प्रदूषण भी एक गंभीर समस्या है। नशाखोरी, कन्याभ्रूण हत्या, महिला उत्पीड़न, गरीबी, मानव तस्करी जैसे मुद्दे क्या देश की और जनता की समस्या नही है? हम इन मुद्दों को इतनी प्रमुखता क्यों नही देते? हर खबर को हम जाति और धर्म से जोड़ कर क्यों देखते हैं? हर मीडिया घराना किसी ना किसी व्यपारिक घरानों के नियंत्रण में है। हर व्यपारिक घराना का अपना एजेंडा और व्यपारिक हित है। जहाँ तक मैने देखा और समझा है कि सभी जगहों पर पत्रकारिता और पत्रकार उन मीडिया घरानों के हित में काम करने लगें है और जन-सरोकार पीछे छूट गया है। जरूरत आज इस बात की है कि पत्रकार उस व्यापारिक हित और दबाव से उपर उठ कर जन सरोकार की बात करें। दूसरी जो बात है कि मीडिया की जवाबदेही आज किसी के प्रति नही है। प्रिंट मीडिया के लिए कुछ हद तक प्रेस परिषद जैसी संस्था है लेकिन इलेक्टॉनिक मीडिया के लिए ऐसी कोई संस्था नही है। इस तरह की स्वच्छंदता मीडिया को उदंड बनाती है जिसका परिणाम सामने है। सरकार को इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इन सब बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि जरूरी विधायी व्यवस्था ना होने और किसी के प्रति जवाबदेह ना होना सबसे बड़ी कमी है और इस कमी को दूर कर मीडिया में फैले इस अतिरंजना पर विराम लगाया जा सकता है। 

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