राहुल इंतजार करें...
09 सितम्बर 2015, नई दिल्ली। कल कांग्रेस
वर्किंग कमिटी द्वारा पारित एक प्रस्ताव में सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष के
तौर पर कार्यकाल एक साल के लिये बढ़ा दिया गया। श्रीमति गांधी का कार्यकाल दिसंबर
में खत्म हो रहा था। इसके साथ ही राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस की कमान संभाले जाने
की अटकलों पर फिलहाल विराम लग गया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी को अभी भी उसके
सबसे लंबे समय तक कार्यरत अध्यक्ष की सेवाओं की जरुरत है। शायद कांग्रेस के युवराज
को पार्टी ने अभी इस लायक नही समझा कि उन्हे कमान सौंप दी जाये और उन्हें और
परिपक्व होने का मौका दिया जाना चाहिये। पिछले छह महीने के दौरान सोनिया ने जिस
तरह से संसद के भीतर और बाहर मोर्चा संभाला है उससे तो ये साफ हो जाती है कि कांग्रेस
की डूबती नैया को उबारने का माद्दा अभी
उनमें है। पिछले लोकसभा चुनाव में अब तक के न्यूनतम स्तर पर आने के बाद ये
लगने लगा कि कांग्रेस को कोई करिश्माई ताकत ही बचा पायेगी क्योंकि राहुल गांधी में
वो बात नजर नहीं आ रही थी। भूमि अधिग्रहण बिल पर जिस तरह से सरकार को कांग्रेस ने संसद
में मजबूर कर दिया वो सोनिया गांधी का नेतृत्व ही था। 14 विपक्षी दलों को एकजूट कर
संसद की कार्यवाही बजट और मानसून सत्र में ना चलने देने का करिश्मा राहुल के वश की
बात नही थी और शायद वे उनके नेतृत्व को स्वीकार भी नही करते। महज 44 सीटों पर सिमट
चुकी कांग्रेस के लिये ये दौर किसी मुसीबत से कम नही है लेकिन इस दौर में पार्टी
का नेतृत्व पर भरोसा कायम रहे बड़ी बात है। वैसे ये वो कांग्रेस पार्टी नही है
जिसमें कई कद्दावर और जमीनीस्तर के नेता हुआ करते थे। अब जो नेता कांग्रेस में
मौजूद है उनमे से किसी में इतनी कूव्वत नही है कि नेतृत्व के किसी भी फैसले पर
सवाल खड़े कर सकें। आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी और संगठन को
मजबूत करने की है और इसके लिये प्रयास शुरू भी हो गये हैं। राहुल गांधी को इस बात
की जिम्मेदारी भी दी गयी है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राहुल इस
काम के जरिये पार्टी पर और पकड़ बना पायेंगे और सोनिया गांधी बिहार जैसे राज्य, जहां
पार्टी बदतर हालात में है, में अन्य दलों के साथ मिलकर पार्टी को मजबूती प्रदान
करेंगी। पार्टी के भीतर एक और मुद्दा है जो हावी है और वो है वरिष्ठ और पुरानी
पीढ़ी के नेता जो सोनिया के साथ सहज महसूस करते है तथा नये नेता जो राहुल के साथ
अपने को जोड़कर चलते है। राहुल को अध्यक्ष पद पर बिठाने की जल्दबाजी उन्हे है जो
सरकार और पार्टी में राहुल कोटे से पदासीन थे, लेकिन पार्टी के ज्यादातर धड़े
सोनिया को ही अध्यक्ष देखना चाहते है। पार्टी में किसी तरह की जोर-आजमाइश से बचने
के लिये दोहरे नेतृत्व की नीति पर चलने की कवायद हो रही है। राहुल की ताजपोशी आज
नही तो कल होनी तय है लेकिन सारी कवायद इस बात की है कि पार्टी के किसी भी असफलता
के लिये उन्हे जिम्मेदार ना ठहराया जाये। बिहार में चुनाव सामने है और वहां कांग्रेस
की हालत किसी से छिपी नही है। अगले साल असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और
पुड्डुचेरी में चुनाव होने हैं। कांग्रेस असम और केरल में सत्ता में है लेकिन असम
में सत्ता वापसी की संभावना क्षीण है। केरल में यूडीएफ जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर
रही है, भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी है लेकिन पार्टी को उम्मीद है कि बीजेपी (जो
वामदलों के क्षेत्र में तेजी से पैठ बना रही है) के डर से जनता वापस उसे एक और
मौका देगी। तमिलनाडू, पश्चिम बंगाल और पुड्डुचेरी में कांग्रेस सत्ता की दौड़ से
बाहर है। ऐसे में कांग्रेस नही चाहती कि राहुल के अध्यक्ष बनते हीं इन नाकामियों
से सामना हो और सारा श्रेय उनके हीं खाते में आये। शायद ये वो वजह है जिसके कारण
राहुल को अगले एक साल तक और इंतजार करना होगा। इंतजार............!
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