शनिवार, 5 सितंबर 2015

यूँ मुलायम का जाना...

यूँ मुलायम का जाना...
04 /09/2015 : नयी दिल्ली। बिहार चुनाव के ठीक पहले समाजवादी पार्टी द्वारा बिहार विधान सभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान राजनीतिक गलियारे में किसी अचरज के तौर पर नहीं आई। सीट बंटवारे को लेकर नाराज चल रही मुलायम सिंह यादव की ये पार्टी बिहार की राजनीति में कोई बड़ा दबदबा नहीं रखती। जनता परिवार से सपा का अलग होना मोदी-मैजिक को चुनौती देने के विपक्ष के एकीकृत प्रयासों को धक्के के तौर पर देखा जा रहा है। अब से तक़रीबन चार  महीने पहले बड़े ही धूम-धाम से जनता परिवार के एका की घोषणा की गयी थी। मुलायम सिंह यादव को इस परिवार का सर्वमान्य मुखिया घोषित किया गया था। इस परिवार में समाजवादी विचारधारा के वे दल शामिल हुए थे जो मोदी-मैजिक के कारण अपनी अस्तित्व खोने के कगार पर है। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, नीतीश कुमार नीत जेडी-यू, चारा घोटाला में सजायाफ्ता लालू यादव की राजद, एच डी देवगौड़ा की जेडी-एस, शिक्षक भर्ती घोटाला में सजा काट रहे ओम प्रकाश चौटाला की आईएनएलडी और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की नेतृत्वविहीन समाजवादी जनता पार्टी सहित इन छह पार्टियों का विलय होना तय हुआ था। लेकिन इसकी घोषणा के बाद ही समाजवादी पार्टी में भारी अंतर्विरोध देखने को मिला और रामगोपाल यादव जैसे कई नेता इस मामले में मुखर दिखाई पड़े। तभी से इस विलय को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुयी थी। परिणति सीट बंटवारे में सिर्फ पांच सीट मिलने को लेकर उपजी नाराजगी के रूप में हुयी। समाजवादी पार्टी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अकेले बिहार विधान सभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। साल 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में महज 0.55 फीसदी वोट पाने वाली सपा राज्य में कोई बड़ा उलटफेर करेगी ऐसा तो संभव नहीं पर एक सन्देश साफ़ तौर पर जाएगा जो मोदी-विरोधियों के हित में नहीं होगा। कल लालू यादव और शरद यादव सपा प्रमुख को मनाने उनके घर पर पहुंचे और करीब दो घंटों तक चली मुलाकात बेनतीजा रही।
मुलायम सिंह यादव का ये यू-टर्न पहला तो नहीं है लेकिन इसके पीछे कोई कारण है या मजबूरी? पहले हमें मुलायम को समझना होगा कि अपने साथियों को धोखा देने की उनकी ये आदत पुरानी है। सबसे पहले 1989 में जब वीपी सिंह कांग्रेस से अलग हुए तो अपने मित्र चंद्रशेखर को छोड़कर मुलायम उनके साथ हो लिए। इसके बाद साल 1990 में जब वीपी सिंह की सरकार गिरी तो वापस चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री के लिए समर्थन देते हुए उनके साथ हो लिए। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने 1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान मुलायम के समर्थन को स्वीकार किया जबकि वो खुद इटावा से जीतने की स्थिति में थे। फिर 1993 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए बसपा ने मुलायम सिंह के साथ गठजोड़ कर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर आगे किया। लेकिन जब 1995 में राजनैतिक वजहों से भाजपा के साथ मिलकर जब मायावती को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश कांशीराम ने की तो मुलायम के आदमियों ने गेस्ट हाउस में मायावती को बंद कर उनके साथ मारपीट किया। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद जब सोनिया गांधी को मुलायम सिंह से पॉजिटिव वाइब मिला और वो सरकार बनाने का दावा पेश करने राष्ट्रपति भवन पहुँच गयी कि मुलायम उनका समर्थन तो करेंगे हीं। चाँद घंटो में पलटी मारते हुए मुलायम ने कहा कि वो किसी विदेशी मूल के नागरिक का प्रधानमंत्री के तौर पर समर्थन नहीं कर सकते। साल 2002 में जब एनडीए ने डॉ ऐपीजे अब्दुल कलाम के नाम राष्ट्रपति के लिए प्रस्तावित किया तो मुलायम सिंह ने मुस्लिम वोटों के मद्देनजर पीपल्स फ्रंट को ठेंगा दिखाया और कलाम के नाम का समर्थन किया। लेफ्ट पार्टियां मुलायम से तक़रीबन सात बार धोखे का शिकार हुयी है और सबसे ताज़ा घटना साल 2008 में यूपीए द्वारा प्रस्तावित न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर थर्ड फ्रंट को धता बताते हुए सरकार को समर्थन की है। साल 2012 में जब ममता बनर्जी राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुख़र्जी के नाम पर सहमत नहीं थी तब मुलायम ने उनके साथ डॉ कलाम , मनमोहन सिंह और सोमनाथ चटर्जी के नाम का प्रस्ताव किया कि इनमे से किसी को राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। अगले दिन यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद मुलायम ने पलटी मारते हुए प्रणब मुख़र्जी के नाम पर अपनी मोहर लगायी और ममता को अपने राजनैतिक अपरिपक्व होने का एहसास कराया।  सबसे नया वाकया इस साल संसद के मानसून सत्र का है जब कांग्रेस के नेतृत्व में सभी विपक्षी दल विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत अन्य भाजपा नेताओं के इस्तीफे पर अड़े हुए थे। तब मुलायम ने पीछे हटते हुए सरकार की संसद चलने देने की पेशकश का समर्थन किया जिसकी वजह से मजबूरन विपक्ष को संसद में जारी गतिरोध से पीछे हटना पड़ा।            
अब बात करते है जनता परिवार की। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के कारण सपा को सिर्फ 5 सीट, जेडीयू को 2 सीट, राजद को 4 सीट, जेडीएस को 2 सीट, आईएनएलडी को 2 सीट आई है। जबकि साल 2009 के लोकसभा चुनाव में इन पार्टियों को क्रमशः 23, 20, 4 , 3 , 0 सीटें मिली थी। इस बात से ये साफ़ हो जाता है की ये सभी दल अपनी अस्तित्व को खतरे में महसूस कर रहे है। दूसरी बात ये है कि मोदी लहर को दिल्ली के अलावा किसी और राज्य में कोई चुनौती नही मिली है और तत्काल में ऐसा करने में कोई सक्षम नहीं दिख रहा है। फिर सभी पुराने कड़वाहटों को भूला कर एकजुट हुए जनता परिवार में ऐसी क्या बात हो गयी कि पहली परीक्षा के पहले हीं कुनबा बिखर गया?
सबसे पहला कारण तो सीट बंटवारे में केवल 5 सीट देने और सीट बंटवारे की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाना बताया जा रहा है जिससे समाजवादी पार्टी अपने को अपमानित महसूस कर रही थी। दूसरी बात ये निकल कर सामने आ रही है कि नीतीश के कद को छोटा करने और अपने समधी लालू यादव की पार्टी को बिहार विधान सभा के सीट में बड़ा हिस्सा दिलाने के लिए ये किया गया है। तीसरी बात ये निकल कर आ रही है कि लालू-नीतीश के कांग्रेस के साथ गठबंधन से मुलायम चिढ़े हुए है। चौथी बात ये भी बताई जा रही है कि रामगोपाल यादव की दिल्ली में बीजेपी के शीर्ष नेताओं से मुलाकात के दौरान ये समझाया जाना कि बिहार में जब वो कांग्रेस से गठबंधन करेंगे तो क्या उत्तर प्रदेश में अपना मुस्लिम वोट भी शेयर करना पसंद करेंगे? सबसे अंत में जो बात समझ में आती है कि मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है। पिछले दिनों मुलायम ने ये बयान भी दिया था कि पिछली सरकार ने सीबीआई का दुरूपयोग किया था और मोदी सरकार भी यही कर रही है।

अब वजह चाहे जो भी हो मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक कलाबाजियां कोई नयी बात नहीं रही है। ये अलग बात है कि जनता परिवार इस बार उनका नया शिकार बना है।

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