बुधवार, 30 सितंबर 2015

मोदी के विदेश यात्रा के फायदे

मोदी के विदेश यात्रा के फायदे
29/09/2015, नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज अमेरिका की दूसरी बार यात्रा खत्म कर वापस देश लौट चुके हैं। प्रधानमंत्री अपनी विदेश यात्रा के कारण हमेशा विपक्ष के निशाने पर रहते हैं। विपक्ष का मानना है कि देश की आंतरिक समस्याओं को नजरअंदाज कर वो विदेश यात्रा पर रहते है। अब तक प्रधानमंत्री ने कुल 28 विदेश यात्रायें की है जिसमें अमेरिका और नेपाल दो बार गयें है। अपने पहले साल में मोदी ने कुल 18 विदेश यात्रायें की जिसमें 5 पड़ोसी देशों की यात्रा शामिल है। इन 18 में से 16 यात्राओं का खर्च करीब 37.22 करोड़ रूपये का बताया गया है। अपने दूसरे साल के चार महीनो में वो 10 देशों की यात्रा कर चुके हैं। सवाल यह उठता है कि लगातार एक के बाद एक हो रहे विदेशी दौरों से देश को कितना लाभ पहुँचा है या पहुँचने वाला है?

सोमवार, 28 सितंबर 2015

बिहार - किसकी सरकार?

बिहार - किसकी सरकार?
28/09/2015, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और मैदान में उतरे दो बड़े गठबंधन एनडीए और महागठबंधन दोनो ही सरकार बनाने का दावा कर रहें है। एनडीए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के एजेंडे पर वोट मांग रही है तो वहीं महागठबंधन बिहार में 10 साल तक सत्ता में रहे नीतीश कुमार के द्वारा किये गये विकास कार्य के आधार पर वोट मांग रहा है। सवाल ये है कि क्या सचमुच बिहार में विकास के नाम पर वोट डाले जायेंगे?
बिहार में इस चुनाव के जरिये 16 वी बार विधानसभा चुने जाने के लिये वोट डाले जायेंगे। अब तक 15 बार बिहार में विधानसभा के लिए मतदान हो चुका है। साल 2010 के चुनाव में जदयू के 20.46%, बीजेपी को 15.64%, राजद को 23.45%, लोजपा को 11.09% और कांग्रेस को 6.09% वोट मिले थे। इसके अलावा बसपा को 4.17% और निर्दलिय उम्मिदवारों को 8.76% वोट मिले थे। वर्तमान में बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटों में से 203 सीटें अनारक्षित, 38 सीटें अनुसूचित जाति और 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिये है। 31 जुलाई 2015 के वोटरलिस्ट के मुताबिक इसबार के चुनाव में कुल 6,68,26,658 (6 करोड़ 68 लाख 26 हजार 658) मतदाता 62779 मतदान केंद्रों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। साल 2010 में हुए चुनाव में बिहार का राजनीतिक ध्रुविकरण अब से अलग था। क्या नई परिस्थितियों में तमाम पार्टीयों के वोट प्रतिशत ऐसे ही रहेंगे?
लॉ फैकल्टी, दिल्ली विश्वविद्यालय में मेरा पहला दिन था। जब मैं क्लास के बाद लॉन में बैठा अपने कुछ सहपाठियों से बातचीत कर रहा था तो परिचय के दौरान मेरी जाति जानने की उत्सुकता सबमें थी। मैं तब दिल्ली नया-नया आया था और इस बात से अनभिज्ञ था कि मेरी जाति ही यहां मेरी मित्र मंडली तय करेगी। खैर जातिवाद के भयावह चेहरे से यहां छात्रसंघ के चुनावों में सामना हुआ जब प्रवासी बिहारियों में भी जातिगत आधार पर उम्मीदवार चुने गये। वो तो छात्रसंघ के चुनाव थे लेकिन देश में जितने भी चुनाव होते हैं उनमें जातिवाद, धर्म और क्षेत्रवाद प्रमुख मुद्दे होते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में एक और मुद्दा जुड़ा और वो है विकास का। लेकिन बिहार में विकास के नाम पर वोट डाले जायेंगे ये  कहना बेमानी होगा। जहां से पूरे देश में सर्वाधिक पलायन होता है उस राज्य में भी जातिवाद समाज की गहराईयों में बसती है। बिहार में करीब अगड़ी जाति के 15% वोट है जिसमें करीब ब्राह्मण 5%, राजपूत 3%, भूमिहार 6% और कायस्थ 1% है। ओबीसी में 14.2% यादव, कुर्मी 4%, और करीब 3% वैश्य जाति का वोट है। अति पिछड़ी जाति के 30 प्रतिशत में कोयरी 8%, कुशवाहा 6% और तेली 3.2% शामिल है। दलित और महादलित मिलाकर 16% वोट है वहीं 16.9% मुसलमान वोटर है। पिछले विधानसभा चुनाव में कुर्मी, अतिपिछड़ा और महादलित वोट में से सबसे बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार की वजह से जदयू को मिले थे। अगड़ी जातियों के वोटों में से कुछ हिस्सा राजद, कुछ जदयू लेकिन सबसे ज्यादा बीजेपी को मिला था। परिस्थितियां इसबार बिल्कुल उलटी है। इसबार जीतनराम मांझी की वजह से महादलित वोट का एक बड़ा हिस्सा एनडीए के पक्ष में खड़ा दिख रहा है। कुर्मी वोटों को छोड़कर पिछड़ा वर्ग का वैश्य समाज का वोट इसबार जदयू के हाथ से निकलता हुआ दिख रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में यादव वोटबैंक का बंटवारा हुआ था और राजद के अलावा एनडीए को भी यादव वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिला था। इसबार भी कमोबेश यही स्थिति दिख रही है। मुस्लिम वोट जो अब तक राजद के खाते में जाता था, इसबार हैदराबादी एमआईएम के आने से बंटती हुई नजर आ रही है। सीमांचल में ओवैसी द्वारा चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद राजद में घबराहट है। लालू यादव के दबाव में अनंत सिंह और सुनील पांडे को जदयू से निकालकर नीतीश कुमार भूमिहार वोट से हाथ धो बैठे है जिसके वजह से ये निश्चित रूप से बीजेपी को मिलने जा रही है। कायस्थ और वैश्य परंपरागत रूप से बीजेपी के वोटर रहें है और इस में कोई फर्क नही आया है। लोजपा की वजह से दलितवर्ग में खासकर पासवान  और रालोसपा की वजह से कुशवाहा वोट एनडीए की झोली में आते दिख रहें है। मतलब इसबार जदयू चुनावी गणित में बीजेपी नीत् एनडीए से पिछड़ती दिखाई दे रही है। लेकिन अंतिम परिणाम तो चुनाव बाद ही पता चलेगा।
कुछ भी हो इस बार बिहार में करीब 4.12 प्रतिशत यानी साढ़े सताईस लाख वोटर ऐसे हैं जो अपने मताधिकार का पहली बार प्रयोग करेंगे। करीब 10.5 प्रतिशत यानि 7012124 वोटर 18 से 25 साल की उम्र के हैं और यह समूह किसी भी पार्टी के लिये महत्वपूर्ण है। बिहार का युवा अगर यह ठान ले कि बिहार को बदलना है तो कोई ताकत उसे ऐसा करने से रोक नही सकती। बिहार के युवक और युवतियों जागो, बदलो अपनी किस्मत और बिहार को। 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

बिहार का मुख्यमंत्री कौन?

बिहार का मुख्यमंत्री कौन?
25/09/2015, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। पूरे देश की नजर इस चुनाव पर नजर है। इस चुनाव में सत्ता और विपक्ष दोनो के लिये करो या मरो की स्थिति है। केंद्र में सत्ता पर काबिज बीजेपी नीत एनडीए बिहार में अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में है। एनडीए के सामने बिहार में पिछले 10 सालों से कुर्सी संभाल रहे नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन जोरआजमाइश के लिये तैयार खड़ी है। महागठबंधन में जदयू, राजद और कांग्रेस ने नीतीश कुमार को पहले से मुख्यमंत्री के तौर पर अपना उम्मीदवार घोषित किया है। एनडीए ने अभी तक किसी को मुख्यमंत्री के तौर पर अपना उम्मीदवार नही बनाया है। एनडीए ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा बना कर मैदान में उतरने का फैसला किया है। वैसे तो एनडीए में कई संभावित उम्मीदवार हैं लेकिन मुख्यमंत्री बनने की संभावना बीजेपी के ही किसी सदस्य की है। सहयोगी दलों में भी कई नेताओं ने बिहार की सत्ता के लिये मंसूबे पाल रखे है, लेकिन एनडीए के सबसे बड़े घटक बीजेपी ऐसा होने देगी इसकी संभावना नही के बराबर है। लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान कई बार इस आशय की चर्चा परोक्ष रूप से की है लेकिन उन्ही के पुत्र चिराग पासवान भी इस पर अपनी दावेदारी काफी पहले जता चुके है। ये अलग बात है कि चुनाव की घोषणा के बाद से लोजपा प्रमुख या उनके पुत्र ने इस संदर्भ में अपना मुँह नही खोला है। एक और घटक राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने भी मुख्यमंत्री बनने का सपना देखा है लेकिन किसी भी तरफ से समर्थन ना मिलने से वो अपना मन मसोस कर रह गये। जदयू छोड़कर एनडीए में नये-नवेले शामिल और महादलित नेता जीतनराम मांझी तो शायद इसी मंसूबे के साथ एनडीए में आये ही थे लेकिन यहां आने के बाद समझ में आया कि ये कुर्सी इतनी आसानी से नही मिलने वाली। उनके लिये दूसरा कोई उपाय होता तो शायद वो निकल भी जाते लेकिन बाकी दरवाजे तो वो खुद बंद कर आये थे। बीजेपी में पहला नाम सुशील मोदी का आता है लेकिन उनकी संभावना नही के बराबर है। वजह तो कई है मसलन जातिवाद का आरोप, साफ-सुथरी छवि का ना होना और सबसे बड़ी बात वर्तमान नेतृत्व को नापसंद होना है। इस नापसंदगी की वजह तो कई वर्ष पुरानी है क्योंकि जब गुजरात तत्कालीन के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बनाने की चर्चा चली तो बिहार के मुख्यमंत्री के पक्ष में और गुजरात के मुख्यमंत्री के विरोध में सबसे मुखर रहने के गौरव उन्हे प्राप्त है। दूसरा नाम वर्तमान कृषि मंत्री राधामोहन सिंह का है। लेकिन मंत्रालय में उनके वर्तमान प्रदर्शन पर प्रधानमंत्री कार्यालय की नाराजगी उन्हे इस कुर्सी से दूर कर देता है। प्याज और दाल की कीमत कृषि मंत्री को बिहार की कुर्सी से चुकानी होगी। तीसरा नाम संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद का है लेकिन उनकी स्थिति लचर है। वर्तमान बीजेपी नेतृत्व को पता है कि वो सबके साथी है और किसी के भी साथी नही है। हर बार शीर्ष नेतृत्व के करीब हो जाना महज संयोग नही हो सकता चाहे शीर्ष पर कोई भी हो। इसके अलावा एक नाम और उभर कर आता है वो है पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकिशोर यादव का है। साफ-सुथरी छवि, मेहनती और ईमानदार होना और संगठानात्मक और प्रशासकीय अनुभव उन्हे इस लायक बनाता है। बाकि संगठन और नेतृत्व की तरफ से कोई और नाम आ जाये तो कोई आश्यर्य नही होगा क्योंकि बीजेपी की वर्तमान अवस्था इसके लिये अनुकूल है।

महागठबंधन की ओर से वर्तमान परिस्थिति में नीतीश कुमार तो मुख्यमंत्री के घोषित उम्मीदवार हैं लेकिन परिस्थितियां तब बदल सकती है जब सहयोगी राजद को जदयू से ज्यादा सीटें हासिल हो जाये। चारा घोटाले में सजा होने के बाद राजद प्रमुख ना तो चुनाव लड़ सकते और ना तो किसी संवैधानिक पद पर बैठ सकते। इसलिये अपने दोनो बेटों को चुनाव मैदान में उतार कर अपनी राजनीतिक विरासत का उतराधिकारी उन्हे बना दिया है। इसे आगे बढ़ाने के लिये वो सत्ता की चाभी अपने पास ही रख कर नीतीश कुमार पर हमेशा दबाव बनाये रखना चाहेंगे। नीतीश और महागठबंधन इस दबाव को कितना झेल पायेगा ये तो समय तय करेगा। विधानसभा चुनावों में अब बहुत कम समय बचा है और उम्मीद है कि राज्य की जनता ने तय कर लिया होगा कि बिहार का सिरमौर किसे बनाना है। अब किसके सिर पर ताज सजेगा ये तो 8 नवंबर को ही पता चलेगा।     

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

भारत – कितना धर्मनिरपेक्ष?

भारत – कितना धर्मनिरपेक्ष?
24/09/2015, नई दिल्ली। आज टीवी पर एक वाद-विवाद देख रहा था जिसमें चर्चा हो रही थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आयरलैंड में विपक्षी दलों की धर्मनिरपेक्षता पर कटाक्ष किया है। आयरलैंड में प्रधानमंत्री के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में आयरिश बच्चों ने संस्कृत में श्लोक पढ़े और स्वागत गान गाये। प्रधानमंत्री ने इस पर कहा कि हम आयरलैंड में तो ऐसा कर सकते हैं लेकिन भारत में करते तो शायद धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाती। एक बात तो सत्य है कि हमारी सभ्यता और संस्कृति के उत्थान में संस्कृत भाषा क योगदान सबसे अधिक है। वैज्ञानिक आधार पर दुनिया की प्राचीनतम भाषा में से एक होने का गौरव जिसे प्राप्त है उस भाषा को उसके उद्गम स्थल पर वो सम्मान अब तक नही मिल पाया है जिसकी वो हकदार है। खैर हमारा इस विषय पर बात करने का उद्देश्य है कि आखिर विदेश में प्रधानमंत्री को यह बात कहने की जरूरत क्यों पड़ी?

संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय इसके द्वारा देश को धर्मनिरपेक्ष नही रखा था। 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में प्रस्तावना पर बहस के दौरान इसके सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद द्वारा इस आशय का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन संविधान सभा ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। साल 1976 में 42 वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा तत्कालीन कांग्रेस पार्टी की सरकार, जिसकी प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी थी, ने संविधान के प्रस्तावना में इसे जोड़ा। गौरतलब है कि उस समय देश में आपातकाल लागू था। इस विधेयक की धारा (2) के जरिये प्रस्तावना में "SOVEREIGN DEMOCRATIC REPUBLIC" के स्थान पर "SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC" जोड़ा गया। सन् 1950 से लेकर 1976 तक कभी ऐसी जरूरत महसूस नही हुई कि देश को सोशलिस्ट और सेक्युलर होना चाहिये। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार को संविधान की प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़ने की जरूरत पड़ी। जवाब शायद तब तक देश के बदले हुये हालात से मिलेगा। तुष्टीकरण की राह पर चल पड़ी कांग्रेस सरकार ने वोट बैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में अल्पसंख्यक समुदाय को खुश कर अपने पाले में करने के लिये शायद संविधान की आत्मा तक को बदलने में कोई कोताही नही बरती। सवाल उठता है कि देश क्या वाकई में धर्म निरपेक्ष है? पहले हमें शब्द धर्मनिरपेक्षता के समझना होगा। सीधे शब्दों में धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म के प्रति निरपेक्ष अथवा तटस्थ होना होता है। संविधान में इसका मतलब संवैधानिक संस्थाओं द्वारा धर्म के प्रति तटस्थ होना है लेकिन क्या हमारा संविधान अल्पसंख्यको को धर्म के आधार पर कुछ रियायत नही बरतता? जवाब आप भी जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता के तत्वों में राज्य के संचालन एवं नीति-निर्धारण में धर्म का हस्तक्षेप नही होनी चाहिये और सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है। क्या वाकई इस देश में इस तरह की परिस्थितियां है? एक और अहम बात है कि सहिष्णुता धर्मनिरपेक्षता का आधार है। देश में जो आज हालात है क्या हम कह सकते हैं कि सहिष्णुता हमारे समाज में पूर्वकाल की तरह मौजूद है। देश में धार्मिक आधार पर होते दंगे क्या इस बात के सबूत नही है कि हमारा देश अब सहिष्णुता के दौर से आगे निकल आया है। क्यों और किस वजह से मैं इसमें नही जाना चाहता लेकिन इतना कहना चाहता हूँ कि इसके लिये देश की राजनैतिक ताकतें जिम्मेदार हैं। पूरी दुनिया में शायद भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां समाज धर्म और जातियों के आधार पर इतने हिस्सों में बंटा है कि सामाजिक ताना-बाना ही बिखर कर रह गया है। देश के बहुसंख्यक को इस तरह से कमजोर कर दिया गया है कि समाज में वो सिमट बंट कर रह गये हैं। एक बात और ये है कि देश में अल्पसंख्यकों को जितने अधिकार प्राप्त है उतना दुनिया के किसी सभ्य और विकसित देश में उपलब्ध नही है। समस्या यह है कि देश में कुछ छद्म धर्मनिरपेक्ष लोग हैं जो इस संवैधानिक व्यवस्था का लाभ उठाकर अपनी रोटी सेंकने में लगे रहते है चाहे समाज का कितना भी नुकसान क्यों ना हो जाये। आज देश को जरूरत है इन छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों से होशियार रहने की ताकि देश की एकता और अखंडता कायम रह सके।          

बुधवार, 23 सितंबर 2015

आरक्षण – एक समीक्षा


आरक्षण – एक समीक्षा
23/09/2015, नई दिल्ली। आरक्षण समाज के पिछड़े वर्गों के लिये संविधान प्रदत अधिकार है। संविधान निर्माताओं ने समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिये ये प्रावधान किया था। लेकिन उनका मानना यह भी था कि ये लंबे समय के लिये नही होना चाहिए। इसके पीछे की शायद ये सोंच थी कि समाज के पिछड़े वर्गों को प्रोत्साहन और उत्थान के जरिये मुख्य धारा में शामिल करना। राजनीतिक लाभ के लिये समाज पर इसे आज तक थोप कर रखा गया है। लेकिन शायद यह अब बहुत जरूरी हो गया है कि वर्तमान व्यवस्था का मूल्यांकन किया जाये और इसे नये सिरे से परिभाषित किया जाये।
आइये आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था का अवलोकन किया जाये। देश में लगभग सभी क्षेत्रों में 49.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। उच्च शिक्षा संस्थान में दाखिले से नौकरी पाने तक में और बाद में पदोन्नति में भी आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्ग को मिलता है। ये अलग बात है कि प्राथमिक शिक्षा हेतु स्कूल में दाखिले के लिये जातिगत आधार पर आरक्षण का प्रावधान नही है लेकिन आर्थिक आधार पर आरक्षण मौजूद है। पहली कक्षा में दाखिला लेने वाले 100 छात्रों में से मात्र 60 छात्र आठवी कक्षा तक पहुँच पाते हैं। समझने वाली बात ये है कि करीब 40 फीसदी छात्र सेकेंडरी स्तर पर पहुँच ही नही पाते तो आरक्षण का लाभ तो बचे 60 फीसदी में से जो आरक्षित श्रेणी के छात्र है वही उठा रहें है। उच्च शिक्षा में 40 फासदी तबका पहुँच ही नही पाया तो आरक्षण के लाभ वो उठायेगा कैसे? देश में उन बच्चों को स्कूल भेजने और उसके पढ़ाई के जारी रखने की व्यवस्था करने की जरूरत है। ये व्यवस्था तब संभव होगी जब हम बच्चों को पढ़ने की उम्र में काम करने से रोक पायेंगे। गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले उन परिवारों को बच्चों के इसलिये काम करना पड़ता है क्योंकि परिवार को भरपेट भोजन उपलब्ध हो सके। इसका समाधान तब संभव है जब उन गरीब परिवारों को इस तरह के रोजगार उपलब्ध कराये जायें ताकि वो अपने सभी सदस्यों का पेट भर सकें। इस तरह से उन बच्चों को काम करने की जरूरत नही होगी और शायद वो स्कूल में अपनी पढ़ाई जारी रख सकेगें। जब वो प्राथमिक शिक्षा पूरी करेंगे तब जाकर वो इस आरक्षण का लाभ उठा पायेंगे। तो जरूरत इस बात की है कि बुनियाद शिक्षा में हो रहे इस ड्रॉप-आउट को रोका जाये ताकि वो तबका आरक्षण के इस सरकारी व्यवस्था का लाभ उठाने के लायक तो बने।

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

डेंगू का डंक

डेंगू का डंक

22/09/2015, नयी दिल्ली। कल साकेत स्थित एक निजी अस्पताल में जाने का मौका मिला। पहले भी कई बार उस अस्पताल में मैं अपने सगे-संबंधियों के इलाज के सिलसिले में वहां जाता रहा हूँ। लेकिन कल  वहां के बदले हुए हालत ने मुझे चौका दिया। निजी अस्पताल होने के नाते वहां एक बड़ा वेटिंग हॉल हुआ करता था जिसमें आमतौर पर मरीज और तीमारदार इंतजार किया करते थे। उस हॉल को घेर कर वार्ड बना दिया गया है। पूछने पर पता चला कि उस नये लेकिन अस्थायी वार्ड में भर्ती सारे मरीज डेंगू के है। देश की राजधानी में डेंगू से मरने वालों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है। सरकारी आंकड़ो में अब तक 17 मौत दर्ज है लेकिन राजधानी दिल्ली में हीं ये संख्या 34 के करीब है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद और नोएडा में 10 और 11 मौत की खबर है। सिर्फ पिछले हफ्ते दिल्ली में 1919 नये मरीज सामने आये है जबकि इस सीजन में ये संख्या 3791 तक पहूँच गयी है। पूरी दुनिया में डेंगू को कहीं भी जानलेवा बीमारी नही माना जाता और इसका इलाज बिल्कुल संभव है। सवाल ये उठता है कि आखिर दिल्ली में ये इतना भयावह और जानलेवा कैसे बन गया। सितम्बर 2006 में पहली बार दिल्ली में सामने आये इस बुखार से सिर्फ 886 मरीज प्रभावित हुए थे। तब से साल दर साल ये बुखार दिल्ली को अपने चपेट में लेता आ रहा है। हर साल होने वाले इतने सारे मौत के बावजूद भी इस पर नियंत्रण के अब तक के उपाय नाकाफी साबित हो रहे है। सवाल ये उठता है कि नगर-निगम, दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार सारी जानकारी के बावजूद इसके नियंत्रण के उपाय क्यों नही कर पाये? बारिश के मौसम शुरू होने के पूर्व किसी तरह की तैयारी क्यों नही की गई? वर्तमान केंद्र सरकार और दिल्ली की सरकार दोनों को जनता ने भारी बहुमत देकर भरोसा जताया कि शायद अब उनकी परिस्थितियां बदलेगी लेकिन जनता के हाथ सिर्फ निराशा ही आयी है। दिल्ली की सरकार अपनी हर असफलता के लिये केंद्र सरकार को दोषी ठहराती है। दिल्ली के लोगों का कल्याण कैसे हो इसके लिये काम करने के बजाय अपना महिमामंडन करना दिल्ली की सरकार की आदत बन गई है। नगर निगमों को फंड मुहैया नही कराने के नित् नये बहाने लाकर दिल्ली सरकार केंद्र पर निशाना साधती रहती है क्योंकि केंद्र और निगमों में एक ही पार्टी की सरकार है। अलग तरह की राजनीति करने का दंभ भरने वाली पार्टी की राय शायद सरकार में आने के बाद ये हो गई है कि आम आदमी से क्या लेना-देना, मरते हैं तो मरने दो। डेंगू से लड़ने के लिये तैयारी की क्या जरूरत है जी जब होगा तो देख लेंगे। इस विचारधारा से उपर उठ कर अगर बरसात के मौसम से पहले इसके लिये कमर कस ली जाती तो शायद 34 जानें नही जाती। बरसात का मौसम अचानक तो आता नही और साल-दर-साल आता है। डेंगू की फितरत भी कुछ इसी तरह की है। बचाव के लिये जागरूकता अभियान का नही चलाना, अस्पतालों में समय पर पर्याप्त इंतजाम नही कर पाना और डेंगू की शुरूआत के बाद इसके फैलाव को रोकने के सही इंतजामात नही करना सरकारी तंत्र की विफलता के लक्षण हैं। तो फिर इससे लड़ने की तैयारियों का जिम्मा कौन उठायेगा? दिल्ली की जनता को जागना होगा और इस जिम्मेदारी को अपने हाथों में लेनी होगी। तब जाकर दिल्ली की जनता का कल्याण होगा।         

सोमवार, 21 सितंबर 2015

आरक्षण – समीक्षा की कितनी जरूरत

आरक्षण – समीक्षा की कितनी जरूरत
21/09/2015, नई दिल्ली। आज दक्षिणी दिल्ली के एक निजी अस्पताल में अपनी माता जी के इलाज के सिलसिले में गया था। वहां सुरक्षा इंतजाम में लगे एक प्रवासी बिहारी रमेश सिंह से मुलाकात हो गई। रमेश एक निजी कंपनी में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते हैं और उनकी तैनाती उस अस्पताल में है। बातचीत के दौरान पता चला कि वो बिहार के एक राजपूत परिवार से ताल्लुक रखते हैं। इस दौरान रमेश ने ये भी बताया कि वो बहुत हीं कम पैसों के लिये 12 घंटे की नौकरी करते हैं। सवाल ये है कि आखिर रमेश जैसे लोग बिहार से आकर कम पैसों में काम करने को मजबूर क्यों है? जवाब तो स्पष्ट है कि एक तो बिहार में अवसरों की कमी और दूसरी आरक्षण की समस्या उन्हे ऐसा करने पर मजबूर कर रही है।
इसी बीच रविवार को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि देश में आरक्षण नीति की समीक्षा की जानी चाहिये। उन्होने कहा कि अब इसका राजनीतिक उपयोग किया जा रहा है। आरक्षण की समीक्षा के लिये एक गैर राजनीतिक समूह का गठन किया जाना चाहिये जो यह तय करे कि किस आरक्षण की आवश्यकता है और कितने समय तक के लिये। इस पर बीजेपी के कई सांसदो ने विरोध में प्रतिक्रिया दी तो कांग्रेस ने भागवत के बयान का समर्थन किया। अन्य विपक्षी दलों ने इसपर कड़ा ऐतराज जताते हुए संघ प्रमुख की आलोचना की। संघ प्रमुख के इस वक्तव्य के आलोक में सवाल ये उठता है कि क्या वाकई में आरक्षण पर विचार की जरूरत है।
चलिये इस पर विचार करते हैं। आरक्षण लागू करते समय संविधान निर्माताओं ने इसे सीमित अवधि तक ही लागू करने की बात कही थी लेकिन राजनैतिक कारणों से इसका विस्तार होता रहा। हद तो तब हो गई जब 1991 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करते हुए अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण के दायरे में शामिल किया। इससे आरक्षण का प्रतिशत 50 से भी ज्यादा हो गया। यह फैसला कितना सही था इस पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे। फिलहाल हमें ये विचार करने की जरूरत है कि आखिर आरक्षण से किसका भला हुआ है? आजादी के 67 साल बाद परिस्थितियां और भयावह हो गई है। आरक्षण का प्रतिशत तो बढ़ गया लेकिन इसका फायदा गरीबों को पहले से कमतर मिल रहा है। शायद भारत दुनिया का इकलौता देश होगा जहाँ जातिगत आधार पर आरक्षण का लाभ दिया जाता है। इस तरह के आरक्षण का लाभ कुछ वर्ग विशेष तक सीमीत रह जाता है। हर जाति में कुछ ऐसे लोग है जो इसका लाभ अपने किसी जाति विशेष में पैदा होने के कारण लेते है जबकि उनकी स्थिति उस जाति के बहुसंख्यक लोगो से कहीं बेहतर होती है। जाति विशेष में जो आर्थिक तौर पर विपन्न लोग हैं वो इसका लाभ बहुत कम या नही के बराबर उठा पाते हैं जबकि उसी जाति के आर्थिक रूप से संपन्न या लोग इसका अधिकतम लाभ उठाते हैं। इस तरह से उस जाति में गरीबों की स्थिति जस की तस रह जाती है। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या जाति विशेष में उन संपन्नों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिये? मेरा जवाब तो ना है। दूसरी परिस्थिति यह है कि जो आरक्षित जातियां नही है उनमें एक बड़ा तबका गरीबी से जूझ रहा है। राजपूत, ब्रह्मण, भूमिहार और कायस्थ जैसी जातियों में गरीबी तेजी से बढ़ी है। आबादी बढ़ने के साथ प्रतिव्यक्ति खेती की जोतने योग्य भूमि का कम होता जाना, नौकरियों में लगातार कम होते अवसर ने इस गरीबी को बढ़ावा दिया है। इन जातियों में गरीबी के कारण एक बड़ा तबका अपना भरण-पोषण करने में अपने को असमर्थ महसूस करता है। विडंबना ये है कि गरीब और असहाय होने के बावजूद उन्हें आरक्षण का लाभ नही मिलता क्योंकि वो अगड़ी जाति में पैदा हुए हैं। आर्थिक तौर पर पिछड़े होने के बावजूद सरकार की आरक्षण से जुड़ी योजनाओं का लाभ नही मिल पाता क्योंकि वो जाति विशेष में पैदा हुए है।

इन सब बातों से तो यही निकलकर आता है कि आज सरकार आरक्षण की जिस नीति को ढ़ो रही है उसकी समीक्षा की वाकई जरूरत है। जब देश की आबादी 125 करोड़ के पार पहुँच गई है और गरीबी के मिटने के कोई आसार नजर नही आते, ऐसे में हमें आँखे खोलकर देखने की जरूरत है ना कि आँखों पर पट्टी बांधे रखने की। सोचिये जरा.....                 

शनिवार, 19 सितंबर 2015

टिकट बंटवारे पर घमासान

टिकट बंटवारे पर घमासान
19/09/2015, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा 2015 की चुनावी प्रक्रिया अब आगे बढ़ चुकी है। पहले दौर के मतदान की नोटिफिकेशन जारी हो जाने के बाद लगभग सभी दलों द्वारा उम्मीदवारों के घोषणा शुरू हो चुकी है। इसके साथ ही संभावित उम्मीदवारों और टिकटार्थियों में संतोष-असंतोष का दौरा पड़ना शुरू हो चला है। एनडीए में बीजेपी ने पहले दौर में 43 उम्मीदवारों की सूची जारी करते हुये 3 विधायको का टिकट काटा। पहले चरण के लिये 19, दूसरे चरण के लिये 15 और अन्य चरणों के लिये 9 उम्मीदवारों की घोषणा बीजेपी द्वारा की जा चुकी है। इस सूची के जारी होने के बाद सहयोगी रालोसपा ने अपनी नाराजगी खुल कर जाहिर किया। रालेसपा काराकट विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी द्वारा अपने उम्मीदवार उतारने की वजह से नाराज है। जिन तीन विधायको का टिकट बीजेपी ने काटा है उनमें कटोरिया विधानसभा सीट प्रमुख  है जो अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित है। बीजेपी की पहली लिस्ट में 26 वर्तमान विधायकों को टिकट देने के साथ जातिय समीकरण का भी खास ख्याल रखा गया है। 5 यादवों को टिकट देते हुये 60 फीसदी से ज्यादा सीटों पर एससी और पिछड़े वर्ग को उतारा गया है। आधी सीटों पर युवाओं और महिलाओं को टिकट दिया गया है। वहीं लोकजन शक्ति पार्टी द्वारा अब तक 40 में से 12 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की गई जिसमें तीन उम्मीदवार पार्टी मुखिया रामविलास पासवान के पारिवारिक सदस्य है। लोजपा ने इस सूची में अपने अल्पसंख्यक चेहरे महबूब अली क़ैसर के बेटे को उनके पारिवारिक गढ़ सिमरीबख्तियारपुर से टिकट उतारा है। लोजपा के इस लिस्ट के जारी होते ही पार्टी में बगावत हुई और पार्टी के वैशाली सीट से सांसद रामकिशोर सिंह उर्फ रामा सिंह ने पार्टी के सभी पदों से इस्तिफा दे दिया। वहीं एक और लोजपा नेता राजद प्रमुख से मिलने पहुँच गये। एनडीए के सबसे नये सदस्य हिंदुस्तान आवाम मोर्चा ने अपने 20 सीटों में से 13 पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। हम के मुखिया जीतनराम मांझी ने अपने पुत्र समेत सभी बागी जद-यू विधायकों को टिकट देने की घोषणा की है जो उनके साथ पार्टी छोड़ कर आये थे। इसके अलावा सीट बंटवारा पर हुए समझौते के मुताबिक हम ने अपने 5 उम्मादवारों, जो बीजेपी के चुनावचिन्ह पर लड़ेंगे, के नाम बीजेपी नेतृत्व को सौंप दिया है। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के बेटे और पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह के दो बेटों के नाम शामिल है।  रालोसपा ने अब तक 5 उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की है। महा गठबंधन में सीटों का बंटवारा हो चुका है और जेडी-यू 101 सीटों पर, राजद 101 साटों पर और कांग्रेस 41 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जदयू में सीटों की घोषणा से पहले हीं बगावत का दौर शुरू हो चला है। राघोपुर से जदयू के वर्तमान विधायक सतीश कुमार भाजपा में शामिल हो गये हैं। वहीं महागठबंधन ने आज शाम अपने घटकों के बीच सीटों के बंटवारे की घोषणा के साथ ये स्पष्ट कर दिया कि कौन सी सीट पर कौन सी पार्टी चुनाव लड़ेगी। इस बंटवारे के तहत जदयू बगहा, नौतन, चनपटिया, सिंहेश्वर, जोगीहाट, पूर्वी चंपारण, मधुवन, शिवहर, बाबू बरही, फूलपरास, निर्मली, सुपौल, त्रिवेणीगंज, राजीगंज, आलमनगर, लालगंज, वैशाली, आदि सीटों पर लड़ेगी। वहीं राजद लौरिया, रक्सौल, मोतीहारी, छाता, बनियार, सुरसन,सीतामढी मधुबनी, झंझारपुर, पिपरा, छातापुर, रून्नी सैदपुर, फारिबसगंज,बरारी, सहरसा, सिमरी बिख्तयारपुर आदि सीटों पर लड़ेगी। कांग्रेस के खाते में बाल्मिकीनगर, राजनगर, नरिकटयागंज, बेतिया, दीघा, बथनाहा, सीधी, बेनीपट्टी, अररिया, बहादुरगंज, किशनगंज, मौर, कटिहार, मनिहारी, गोरहा आदि सीटें आयी है। महागठबंधन के तरफ से कहा गया है कि घटक दल उम्मीदवारों के नामों की घोषणा जल्द करेंगे। जैसे-जैसे उम्मादवारों की लिस्ट जारी हो रही है चुनावी पारा तेजी से चढ़ रहा है और लगभग सभी दलों को बगावत से दो-चार होना पड़ रहा है। ऐसे में अब ये देखना है कि बिहार विधान सभा चुनाव का परिणाम किसे सही साबित करता है।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

डायबीटीज – एक खामोश हत्यारा

डायबीटीज – एक खामोश हत्यारा
1/09/2015 - नई दिल्ली। आज सुबह अखबार के पहले पन्ने पर एक खबर देखी – अमेरिका में 3 साल की बच्ची को डायबीटीज टाईप -2 रोग से पीड़ित पाया गया है। शायद ये बच्ची दुनिया की सबसे कम उम्र की डायबीटीज रोगी है। इस बच्ची का वजन 35 किलो है और वो मोटापे से ग्रसित है। दुनिया भर में डायबीटीज एक खतरनाक रोग बन कर उभरा है। दुनिया की आबादी का 8.3 प्रतिशत हिस्सा या करीब 38.7 करोड़ लोग इस रोग से पीड़ित है। विश्व भर में बच्चों में टाईप-2 डायबीटीज की बीमारी नाटकीय रूप से बढ़ी है और इसकी वजह है मोटापा।
डायबीटीज रोग में मरीज के शरीर में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है और कारण होता है आग्न्याशय (पैनक्रियाज) द्वारा इंसुलिन का उत्सर्जन सही मात्रा में नही करना। मनुष्य द्वारा खाने में जो कार्बोहाइड्रेट लिया जाता है उसे पाचन तंत्र ग्लूकोज में बदलते है और ये इंसुलिन के जरिये खून में मिलकर मनुष्य के शरीर में उर्जा का संचार करता है। जब इंसुलिन का इंसान के शरीर में सही मात्रा में उत्सर्जन नही होता तो खून में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ने लगती है और इस अवस्था को डायबीटीज या मधुमेह के नाम से जाना जाता है। डायबीटीज मूलतः दो तरह का होता है- टाइप – 1 और टाइप – 2। डायबीटीज टाइप -1 में मरीज के शरीर में इंसुलीन नही बनता या ना के बराबर बनता है। इसमें मरीज को इंसुलीन पर निर्भर रहना पड़ता है और इंसुलिन नही लेने पर मरीज की मौत भी हो सकती है। इस प्रकार का मधुमेह वैसे तो किसी भी उम्र में हो सकता है परंतु ज्यादातर बच्चे और युवाओं में पाया जाता है। टाइप-2 में मरीज के शरीर में पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन संतुलित मात्रा में नही होता है और तकरीबन दुनिया के कुल डायबीटीज मरीजों में 90 प्रतिशत इस तरह के होते है। इस तरह के मरीजों के शरीर में इंसुलिन प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है या फिर इंसुलिन पर्याप्त मात्रा में नही बन पाता है। ये किसी भी उम्र में हो सकता है लेकिन इसका मोटापा से कोई लेना-देना नही है।
दुनिया भर के विशेषज्ञों का मानना है कि डायबीटीज जीवन-शैली संबंधित रोग है। लेकिन कम उम्र के युवाओं और बच्चों में इस बीमारी का फैलना चिंता का विषय है। टेक्नोलॉजी के बढ़ते प्रभाव की वजह से बच्चे टीवी, कंप्युटर और विडियो गेम का इस्तेमाल ज्यादा करने लगे है। ऐसे में बच्चों की शारीरिक गतिविधियां बहुत हीं कम हो गयी है। खेल के मैदान में बच्चे समय कम से कम दे रहें है और खानपान की शैली भी मौजूदा समय में बहुत ही असंतुलित हो चला है। जंक फूड का ज्यादा इस्तेमाल ऐसी परिस्थिति में कोढ़ में खाज की तरह साबित हो रहा है। इन सारी वजहों से उनमें मोटापा तेजी से बढ़ रहा है। इस कारण युवाओं और बच्चों में टाइप-1 डायबीटीज तेजी से बढ़ रहा है। बच्चों में संतुलित खानपान और शारीरिक क्रियाकलाप को बढ़ावा देना इससे बचने में मदद करेगा।

भारत में 1971 में 1.2 फीसदी लोग डायबीटीज से पीड़ित थे लेकिन सन 2000 आते-आते ये तादाद 12 फीसद हो चुकी थी। एक अनुमान के मुताबिक 2011 में भारत में 6.13 करोड़ लोग इससे पीड़ित हो चुके थे और ये तादाद सन 2030 तक बढ़ कर 10 करोड़ के पार हो जायेगी। साल 2012 में करीब 10 लाख भारतीय इसकी वजह से मौत के शिकार हो चुके है। पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय करीब डायबीटीज होने के उम्र के 10 साल पहले ही इसका शिकार हो जाते है। जीवन शैली में बदलाव जैसे कम शारीरिक मेहनत, सुस्त दिनचर्या, चीनी और वसा का ज्यादा इस्तेमाल इसके प्रमुख कारण है। इन सबके अलावा एक अहम कारण जो निकलकर सामने आयी है वो है भागदौड़ और तनावपूर्ण जिंदगी। महानगर के अलावा ग्रामीण जनसंख्या भी तनाव की चपेट में है। भौतिक सुख और विलासपूर्ण जीवन की लालसा ने मनुष्य को इसके तरफ ढ़केला है। डायबीटीज के वजह से हृदय रोग, तंत्रिका तंत्र की समस्या, किडनी खराब होना और आँखों में रेटिना संबंधित बीमारी आम है। इससे बचाव के लिये जीवन शैली में बदलाव लाना सबसे महत्वपूर्ण है। नियमित जीवनशैली, संतुलित खानपान और जानकारी द्वारा हीं इस महामारी से बचा जा सकता है।

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

भारत और पकिस्तान – कितने करीब?

भारत और पकिस्तान – कितने करीब?
17/09/2015- नई दिल्ली। भारत में लोक सभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। मनोनीत् प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पाकिस्तान समेत सभी पड़ोसी देशों को शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्यौता देना पूरी दुनिया के लिये किसी आश्चर्य से कम नही था। इससे पहले भारत के किसी मनोनीत प्रधानमंत्री ने ऐसा नही किया था। इस निमंत्रण को पड़ोसी देशों के साथ पूर्ववर्ती सरकार की नीति से अलग हटकर संबंध सुधारने की दिशा में एक नये प्रयास के तौर पर देखा गया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ आये भी और एक उम्मीद जगी कि अब शायद पड़ोसी के साथ संबंध बेहतर होंगे। आज करीब एक 15 महीनों के बाद संबंधो में बदलाव तो दिखा है, लेकिन अपेक्षित और सकारात्मक नही है। कई पहलू है इस बदलाव के और मोदी सरकार ने शायद ये अनुमान पहले लगा लिया था। पिछले सवा साल में भारत-पाक सीमा पर सीजफायर उल्लंघन की धटनायें पहले से ज्यादा हुई है। आतंकवादियों के घुसपैठ की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। सीमा पर तनाव घटने के बजाय बढ़ गया है। दोनो देश के तरफ से भड़काऊ बयान लगातार दिये जा रहें है। दोनो देशों के बीच विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द की जा चुकी है और भविष्य में कब बातचीत होगी मालूम नही।

पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा मोदी सरकार के शपथ ग्रहण में शामिल होने के निमंत्रण स्वीकारने के बाद ये उम्मीद जगी कि रिश्ते शायद अब सही राह पर चल पड़े है। 27 मई 2014 को मोदी और शरीफ की पहली मुलाकात दिल्ली के हैदराबाद हाउस में हुई। इस मुलाकात के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री ने आतंकवाद और 26/11 की घटना के उठाया। मुलाकात से पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कहा कि वो शांति का संदेश लेकर आये हैं। स्वदेश लौटने के बाद नवाज शरीफ ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर कहा कि भारत में हुये बातचीत से वो बेहद संतुष्ट है। इसके बाद पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर गोलीबारी, जो पहले छुटपुट होती थी, की घटनाओं में धीरे-धीरे बढ़ोतरी शुरू हुई। सितम्बर में विदेश सचिव स्तर की वार्ता से पहले कश्मिरी अलगाववादियों को पाकिस्तानी दूतावास द्वारा बातचीत के लिये अमंत्रित किया। इसपर कड़ा ऐतराज जताते हुये भारत ने ये वार्ता रद्द कर दी। सितंबर के महीने में ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में जब कश्मीर का मुद्दा उठाया तो भारतीय प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिव के पास अपना विरोध दर्ज कराया। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पड़ोसियों से सभी मुद्दे आपसी बातचीत के जरिये सुलझाने के प्रति अपनी प्रतिबध्दता जताई। लेकिन पहली बार हालात बिगड़ने का अंदाजा हुआ अक्तूबर में जब पाकिस्तान की ओर से की गई गोलीबारी में 5 भारतीय नागरिकों की मौत हुई। भारत सरकार तब फुर्ती दिखाते हुये बीएसएफ से बराबरी से जवाबी कार्रवाई करने का निर्देश जारी किया। इसके बाद नवंबर में काठमांडू में हुये सार्क सम्मेलन में दोनो प्रधानमंत्रियों की आपसी मुलाकात नही हुई। इसके बाद दोनो देशों के बीच कोई अधिकारिक बातचीत नही हुई। सीमा पर गोलीबारी और आतंकी घुसपैठ बदस्तूर जारी रहा। इस साल जुलाई के महीने में रूस के ऊफा में शंघाई कॉपरेशन आर्गनाइजेशन की बैठक के दौरान दोनो प्रधानमंत्रियों की मुलाकात हुई। दोनों बातचीत को फिर से शुरू करने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की मीटींग के लिये तैयार भी हुये। लेकिन ऐन मौके पर पाकिस्तान द्वारा फिर पुरानी गलती दुहराई गई। कश्मिरी कट्टरपंथियों और अलगाववादियों को फिर बातचीत से पहले पाकिस्तान द्वारा निमंत्रित किया गया जिसपर भारत ने फिर से ऐतराज जताया। भारत की ओर से कहा गया कि अलगाववादी इस मुद्दे में कोई आधिकारिक हैसियत नही रखते और उनको इसमें शामिल करना शिमला समझौते का उल्लंघन है। भारत की ओर से स्पष्ट किया गया कि बातचीत सिर्फ दोनों पक्षों में हो सकती है और अगर पाकिस्तान इसके लिये तैयार हो तभी वार्ता होगी। नतीजतन पाकिस्तान की ओर से वार्ता रद्द करने की घोषणा की गयी। दरअसल जब भी भारत-पाक का राजनैतिक नेतृत्व संबंधो को सुधारने की ओर अग्रसर होता है पाकिस्तान की सेना अपने को असहज महसूस करने लगती है। तीन आधिकारिक और एक गैर- आधिकारिक युद्ध हारने के बाद पाक-सेना का नेतृत्व इस बात को समझता है कि भारत से सीधे तौर पर पार नही पाया जा सकता। अलगाववादियों को बढ़ावा देना, परोक्ष रूप से आतंकवाद को भारतीय सीमा में भेजकर हमला कराने जैसी स्थितियों से ही भारत को परेशान किया जा सकता है। दूसरी ओर अहम बात यह है कि पाकिस्तानी सेना कभी भी लोकतांत्रिक सरकार का सत्तापलट कर शासन में आ जाती है जिससे बातचीत की पूरी प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इस बार भी ऐसी खबरें आ रही है कि शायद पाकिस्तान में जल्द ही कोई बड़ा फेरबदल हो जाये। अब देखना ये होगा कि ऐसी परिस्थिति में भारत सरकार किस तरह का रूख अख्तियार करती है। 

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

बिहार चुनाव – परिदृश्य – 2

बिहार चुनाव – परिदृश्य – 2

15/09/2015, नई दिल्ली। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीखों के ऐलान से बिहार में चुनावी समर का श्रीगणेश हो गया है। पांच चरण में होने वाले मतदान से इस बार कई मायनो में नये इबारत गढ़े जायेंगे। अक्तूबर में 12,16 और 28 तारीख और नवंबर में 1 और 5 तारीख को मतदान होंगे। परिणाम 8 नवंबर को घोषित किये जायेंगे। निष्पक्ष चुनाव के लिये चुनाव आयोग ने पुख्ता इंतजाम किये है। केंद्रीय सुरक्षा बलों के तकरीबन 50,000 सुरक्षाकर्मी के उपर चुनाव को हिंसामुक्त रखने की विषम चुनौती है। इसबार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर प्रत्याशियों की तस्वीर भी लगी होगी। पेड न्यूज पर इसबार चुनाव आयोग की खास नज़र होगी और इस बावत निर्देश भी जारी कर दिये गये हैं। इसकी निगरानी के लिये जिला, राज्य और मुख्य निर्वाचन अधिकारी के स्तर पर मीडीया सर्टिफिकेशन एंड मॉनिटरिंग कमिटी का गठन किया गया है।

विकास के मुद्दे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ एनडीए बिहार में मैदान में है। वहीं नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन अपने 10 साल के कामकाज के आधार पर वोट मांग रही है। इस बार के चुनाव में पुराने खिलाड़ी नये राजनीतीक समीकरणों के साथ मैदान में है। लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए में शामिल हुये लोक-जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) के साथ भारतीय जनता पार्टी मैदान में है। जातिय समीकरण के हिसाब से इस गठबंधन को और मजबूत करने के लिये एनडीए में जीतनराम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम) को शामिल किया गया है। मूसहर जाति के मांझी को अपने खेमे में शामिल कर एनडीए ये उम्मीद कर रही है कि महादलित वोटबैंक का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ आ जायेगा। करीब साढ़े चार महीने पहले एकीकृत जनता परिवार (जिसमें मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, नीतीश कुमार नीत जेडी-यू, लालू यादव की राजद, एच डी देवगौड़ा की जेडी-एस, ओम प्रकाश चौटाला की आईएनएलडी और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की नेतृत्वविहीन समाजवादी जनता पार्टी सहित छह पार्टियों शामिल थी) की घोषणा कर एनडीए का मजबूत विकल्प तैयार करने की कवायद शुरू हुई लेकिन ज्यादा दूरी तय नही कर पायी। जनता परिवार से मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के अलग होने से नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधन को वोट प्रतिशत के हिसाब से भले ही कोई नुकसान पहुँचता नही दिख रहा है लेकिन जनता के बीच एक स्पष्ट संदेश तो चला ही गया कि जनता परिवार और महागठबंधन में सब कुछ ठीक नही है। जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर महादलित के अपमान का आरोप झेल रहे नीतीश कुमार के लिये इस वोटबैंक की नाराजगी परेशानी का सबब बनी हुई है। ऐसा लगता है कि लालू यादव के राजनीती का आधार रहे मुस्लिम और यादव वोट बैंक भी उनसे दूरी बनाये हुये है। पिछले लोकसभा चुनाव में लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती की हार से ये स्पष्ट हो जाता है। एक सबसे बड़ा आरोप लालू यादव पर परिवारवाद का लग रहा है। इसके पीछे की वजह लालू यादव द्वारा अपने बेटे को उत्तराधिकारी के तौर पर पेश करना है। असदुद्दीन ओवैसी के बिहार में चुनाव लड़ने का ऐलान इस गठबंधन के लिये खासी मुसीबत का सबब बन कर आयी है। हलांकि एमआईएम सिर्फ सीमांचल क्षेत्र में चुनाव लड़ेगी जहां मुस्लिम वोटरों की तादाद अच्छी-खासी है लेकिन महागठबंधन के सबसे मजबूत वोटबैंक का बंटवारा प्रतिद्वंदी एनडीए को फायदा हीं पहुँचायेगा इसमें कोई दो राय नही है। उधर एनडीए के एक और घटक दल शिवसेना ने भी अकेले चुनाव लडने का ऐलान किया है। बिहार में लगभग नगण्य शिवसेना से एनडीए को कोई नुकसान होगा इसकी संभावना नही है और महाराष्ट्र में बिहारियों का विरोध करने का श्रेय भी उनके खाते में है। सीट बंटवारे के मुद्दे पर अपमान के कारण महागठबंधन से अलग हुये शरद पवार की एनसीपी, राजद से निष्कासित पप्पू यादव और कई वाम दल मिलकर एक नये विपक्ष को गढ़ने की कोशिश में लगें है लेकिन इनकी विश्वसनियता बिहार की जनता के नजर में तो नही है। बहरहाल इन सबके किस्मत का फैसला बिहार की जनता करेगी। दीपावली में किसका बम जोर की आवाज करेगा और किसका फुस्स होगा ये तो समय ही बतायेगी। 

बुधवार, 9 सितंबर 2015

राहुल इंतजार करें...

राहुल इंतजार करें...
09 सितम्बर 2015, नई दिल्ली। कल कांग्रेस वर्किंग कमिटी द्वारा पारित एक प्रस्ताव में सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर कार्यकाल एक साल के लिये बढ़ा दिया गया। श्रीमति गांधी का कार्यकाल दिसंबर में खत्म हो रहा था। इसके साथ ही राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस की कमान संभाले जाने की अटकलों पर फिलहाल विराम लग गया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी को अभी भी उसके सबसे लंबे समय तक कार्यरत अध्यक्ष की सेवाओं की जरुरत है। शायद कांग्रेस के युवराज को पार्टी ने अभी इस लायक नही समझा कि उन्हे कमान सौंप दी जाये और उन्हें और परिपक्व होने का मौका दिया जाना चाहिये। पिछले छह महीने के दौरान सोनिया ने जिस तरह से संसद के भीतर और बाहर मोर्चा संभाला है उससे तो ये साफ हो जाती है कि कांग्रेस की डूबती नैया को उबारने का माद्दा अभी  उनमें है। पिछले लोकसभा चुनाव में अब तक के न्यूनतम स्तर पर आने के बाद ये लगने लगा कि कांग्रेस को कोई करिश्माई ताकत ही बचा पायेगी क्योंकि राहुल गांधी में वो बात नजर नहीं आ रही थी। भूमि अधिग्रहण बिल पर जिस तरह से सरकार को कांग्रेस ने संसद में मजबूर कर दिया वो सोनिया गांधी का नेतृत्व ही था। 14 विपक्षी दलों को एकजूट कर संसद की कार्यवाही बजट और मानसून सत्र में ना चलने देने का करिश्मा राहुल के वश की बात नही थी और शायद वे उनके नेतृत्व को स्वीकार भी नही करते। महज 44 सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस के लिये ये दौर किसी मुसीबत से कम नही है लेकिन इस दौर में पार्टी का नेतृत्व पर भरोसा कायम रहे बड़ी बात है। वैसे ये वो कांग्रेस पार्टी नही है जिसमें कई कद्दावर और जमीनीस्तर के नेता हुआ करते थे। अब जो नेता कांग्रेस में मौजूद है उनमे से किसी में इतनी कूव्वत नही है कि नेतृत्व के किसी भी फैसले पर सवाल खड़े कर सकें। आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी और संगठन को मजबूत करने की है और इसके लिये प्रयास शुरू भी हो गये हैं। राहुल गांधी को इस बात की जिम्मेदारी भी दी गयी है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राहुल इस काम के जरिये पार्टी पर और पकड़ बना पायेंगे और सोनिया गांधी बिहार जैसे राज्य, जहां पार्टी बदतर हालात में है, में अन्य दलों के साथ मिलकर पार्टी को मजबूती प्रदान करेंगी। पार्टी के भीतर एक और मुद्दा है जो हावी है और वो है वरिष्ठ और पुरानी पीढ़ी के नेता जो सोनिया के साथ सहज महसूस करते है तथा नये नेता जो राहुल के साथ अपने को जोड़कर चलते है। राहुल को अध्यक्ष पद पर बिठाने की जल्दबाजी उन्हे है जो सरकार और पार्टी में राहुल कोटे से पदासीन थे, लेकिन पार्टी के ज्यादातर धड़े सोनिया को ही अध्यक्ष देखना चाहते है। पार्टी में किसी तरह की जोर-आजमाइश से बचने के लिये दोहरे नेतृत्व की नीति पर चलने की कवायद हो रही है। राहुल की ताजपोशी आज नही तो कल होनी तय है लेकिन सारी कवायद इस बात की है कि पार्टी के किसी भी असफलता के लिये उन्हे जिम्मेदार ना ठहराया जाये। बिहार में चुनाव सामने है और वहां कांग्रेस की हालत किसी से छिपी नही है। अगले साल असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में चुनाव होने हैं। कांग्रेस असम और केरल में सत्ता में है लेकिन असम में सत्ता वापसी की संभावना क्षीण है। केरल में यूडीएफ जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है, भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी है लेकिन पार्टी को उम्मीद है कि बीजेपी (जो वामदलों के क्षेत्र में तेजी से पैठ बना रही है) के डर से जनता वापस उसे एक और मौका देगी। तमिलनाडू, पश्चिम बंगाल और पुड्डुचेरी में कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर है। ऐसे में कांग्रेस नही चाहती कि राहुल के अध्यक्ष बनते हीं इन नाकामियों से सामना हो और सारा श्रेय उनके हीं खाते में आये। शायद ये वो वजह है जिसके कारण राहुल को अगले एक साल तक और इंतजार करना होगा। इंतजार............!