आरक्षण : जरुरत किसकी?
31/08/2015:नई दिल्ली। गुजरात से शुरू हुए पटेल समुदाय
के आरक्षण आंदोलन ने लगभग पूरे देश को इसकी चपेट में ला दिया है। कल पाटीदार अनामत
समिति के हार्दिक पटेल ने दिल्ली में कहा कि इस आंदोलन को देशव्यापी बनाया जाएगा
और गुर्जर तथा कुर्मी समुदाय को भी इसमें शामिल किया जाएगा। आज पश्चिमी उत्तर
प्रदेश के बागपत जिले में जाट समुदाय ने जाट आरक्षण बचाओ महारैली में आंदोलन करने
और पूरे देश में चक्का जाम करने की धमकी दी है। जाट नेताओ ने कहा कि अगर पटेल उनके
आंदोलन में साथ देंगे तो बदले में वे भी उनके आंदोलन में शामिल होंगे। इन सभी
बातों से एक ही सवाल खड़ा होता है कि आखिर आरक्षण की जरुरत किसको है और है भी तो
क्यों?
इस सवाल का हल ढूंढने के लिए हमें संविधान निर्माताओं के उस विचार को
समझना होगा जिसकी वजह से उन्होंने आरक्षण देने का प्रावधान किया था। 30 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में श्री कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी ने डॉक्टर आम्बेडकर
के सिर्फ “बैकवर्ड क्लास” को आरक्षण देने पर सवाल उठाते हुए कहा कि संविधान में कही भी इसे
परिभाषित नहीं किया गया है। उन्होंने ये भी कहा की स्टेट ऑफ़ मुंबई ने इसे परिभाषित
किया है जिसमे न सिर्फ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति बल्कि
अन्य जातियों को भी इसमें शामिल किया गया है जो आर्थिक, शैक्षिक
और सामाजिक तौर पर पिछड़े है। इस बहस में उत्तर देते हुए डॉ आम्बेडकर ने कहा कि
पिछड़े वर्गों का निर्धारण करने का अधिकार राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ देना चाहिए। पिछड़े
वर्गों का निर्धारण करने और आरक्षण देते समय हमें दो बातों को ध्यान में रखना
होगा। पहला ये कि जिन समुदायों को हम आरक्षण देने जा रहे है क्या उनका सरकार और
सरकारी नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व अब तक नहीं हो पाया है? दूसरा ये की क्या
उन्हें आरक्षण देने से “सामान अवसर के सिद्धांत” का उल्लंघन तो नहीं होगा। श्री एच एन कुंजरू ने इसे
निश्चित समय सीमा(दस साल्) तक ही लागू
करने का प्रावधान करने की सलाह दी।
इस बात से ये तो स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं की मंशा थी कि
आरक्षण का लाभ सिर्फ उनको मिलना चाहिए जिनका समुचित प्रतिनिधित्व अब तक नहीं हो
पाया है। लेकिन वोट बैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में 10 साल के इस आरक्षण को समय समय पर विस्तार दिया गया ताकि वो इसके सहारे के
आदि हो जाये और उनकी ये आदत बनी रहे और वो कभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाये। साल 1989 में जब जनता दल की
सरकार बनी तो इसे और वीभत्स रूप दिया गया और आम्बेडकर के उपरोक्त विचारों को कुचल दिया
गया। कांग्रेस से अलग हुए वी पी सिंह ने कांग्रेस की इस पालिसी को और ही खतरनाक
रूप देते हुए समाज में विभाजन की एक गाढ़ी लकीर खींची जिसे आजतक समाज झेल रहा है।
तत्कालीन सरकार के इस कदम का परिणाम ये हुआ कि पूरे देश में अगड़े और पिछड़े के नाम
पर आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन से पूरे देश में सैकड़ों जाने गयी और आर्थिक नुकसान
की तो बात न ही करे तो बेहतर होगा।
आज जो लोग आरक्षण का लाभ ले रहे है तथा जो इसके लिए मांग या फिर
आंदोलन कर रहे है उन्हें कुछ सवालों के जवाब खुद तलाशने की जरुरत है। पहला सवाल ये
है कि क्या वाकई में उनके समाज का सरकार और सरकारी नौकरियों में समुचित
प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया है? सवाल नंबर दो ये कि क्या उनके समाज को आरक्षण देने से कहीं ये सामाजिक
ताना बाना (सोशल फैब्रिक) या कहें तो सामान अवसर के संवैधानिक वादे का अवसान तो
नहीं हो जाएगा। अगर इन दोनों सवालों का जवाब अगर नहीं है तो उस समाज को आरक्षण की
सख्त जरुरत है। यदि इन सवालों के जवाब हाँ में हुए तो फिर उन्हें अपने इस आरक्षण
या इसकी मांग को छोड़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की जरुरत है क्यूंकि
आरक्षण का मूल उद्देश्य ही यही है। सोंचिये और तलाशिये इन दोनों सवालों के जवाब ………किसी और से नहीं बल्कि खुद से।