शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष

धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष
(चित्रः Wikipedia से साभार)
27/11/2015, नई दिल्ली। कल भारत का पहला संविधान दिवस मनाया गया। स्वतंत्रता के 68 वर्षों बाद और संविधान के लागू होने के 55 साल बाद यह शुरूआत की गयी है। कल से शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र में पहले दो दिन को डॉ. भीमराव आम्बेदकर के 125वीं जयंती समारोह और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता पर चर्चा के लिए रखा गया है। चर्चा की शुरूआत करते हुए देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने एक बात जो प्रमुखता से कही वो संविधान के प्रस्तावना में शामिल सेकुलर शब्द का आज की राजनीति में दुरूपयोग किया जा रहा है। गृहमंत्री ने यह भी कहा कि संविधान के आधिकारिक अनुवाद में सेकुलर का अर्थ पंथनिरपेक्ष है धर्मनिरपेक्ष नही

वैसे संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान के प्रस्तावना में इस शब्द का प्रयोग नही किया गया था। संविधान सभा में 17 अक्टूबर 1949 को बिहार से सदस्य श्री ब्रजेश्वर प्रसाद के संशोधन, जिसमें सेकुलर शब्द को प्रस्तावना में शामिल करने का प्रस्ताव था, को सभा ने खारिज कर दिया था। संविधान की आत्मा कहे जाने वाले प्रस्तावना में इसे शामिल करने की जरूरत संविधान सभा ने कभी महसूस नही की क्योंकि उन्हे देश की जनता पर पूर्ण विश्वास था। इससे पहले 15 नवंबर 1948 को प्रारूप पर चर्चा के दौरान संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत को राज्यों के सेकुलर, फेडरल, सोशलिस्ट संघ के रूप में घोषित करने के लिए प्रोफेसर के टी शाह के संशोधन पर जवाब देते हुए डॉ आम्बेडकर ने कहा था कि अगर संविधान यह तय करेगा कि हम किस तरह के समाज में रहेगें तो हम लोगों से उनकी स्वतंत्रता छीन लेंगे। लेकिन देश में जब लोकतंत्र का सबसे बुरा दौर चल रहा था और आपातकाल लागू था तब तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 42वें संविधान संशोधन के द्वारा वर्ष 1976 में संविधान के प्रस्तावना में सेकुलर सोशलिस्ट शब्द जोड़े गए। तब से लेकर आजतक राजनीतिक दलों के द्वारा निहित स्वार्थवश सेकुलर शब्द का अर्थ धर्मनिरपेक्षता लिया जाता है।
निरपेक्ष शब्द का अर्थ होता है किसी के प्रति सापेक्ष नही होना या विचार में लिए बिना होना और इसी संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष का अर्थ किसी भी धर्म के सापेक्ष नही होना या विचार में लिए बिना होना है। अगर हम संविधान के प्रस्तावना में सेकुलर शब्द को धर्मनिरपेक्ष मान लें और अपने संवैधानिक प्रावधानों पर गौर करें तो पाते हैं कि संविधान धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यको का पूर्णरूपेण ख्याल रखती है। अनुच्छेद 25 से लेकर अनुच्छेद 30 तक इस विषय में कई प्रावधान मौजूद है। इस तरह से हमारा संविधान जब धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की बात करता है तो वह नागरिकों के धर्म को विचार में लेता है या सापेक्ष हो जाता है।  इसके अलावा अनुच्छेद 14 से लेकर 21 तक जो मौलिक अधिकार दिए गए हैं उनमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है और अगर संविधान हमें किसी भी धर्म के प्रति निरपेक्ष होने को कहता है तो यह हमारे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन होगा क्योंकि अनुच्छेद 25 में हमें वही संविधान अपने पसंद के धर्म को चुनने और उसका पालन करने की स्वतंत्रता देती है। अतः मेरा मानना है कि संविधान हमें धर्मनिरपेक्ष होना तो बिल्कुल नही सिखाता।
अब बात करते हैं हमारे समाज की जो लंबे समय से अनेक पंथो का घर रहा है। सनातन हिंदू धर्म में कई मत या पंथ आदि काल से मौजूद रहें है। इसी सनातन धर्म से कई अन्य धर्मों, जो आज अस्तित्व में हैं, का प्रादुर्भाव हुआ है। इसके अलावा समय-समय पर बाहर से आने वाले आक्रमणकारियों द्वारा देश पर कब्जा जमाने के बाद अपने धर्म का प्रसार किया गया और वो आज भी देश में सम्मानपूर्वक फल-फूल रहें हैं। बाहर से आने वाले उन धर्मों में भी कई मत या पंथ मौजूद थे और वो समय के साथ मजबूत होते गए। इस तरह यह देश कालांतर में बहुधर्मी होने के साथ बहुपंथी भी होता गया। शायद इसी सामाजिक संरचना को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने संविधान में कहीं भी सेकुलर शब्द का प्रयोग नही किया होगा। जब वर्ष 1976 में संविधान की प्रस्तावना में जब इसे शामिल भी किया गया तो इसका अर्थ पंथनिरपेक्ष के रूप में लिया गया। लेकिन कतिपय राजनीतिक कारणों और निहित स्वार्थवश इसका शब्दार्थ धर्मनिरपेक्ष के रूप में लिया जाने लगा।

          आज जरूरत इस बात को समझने की है कि हमारा समाज और देश धर्मनिरपेक्ष कभी हो ही नही सकता। जरूरत इस बात की भी है कि सेकुलर शब्द के सही मायने को समझा जाए और इसका दुरूपयोग बंद किया जाए। 

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