शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

बिहार चुनाव – हार-जीत के मतलब

बिहार चुनाव – हार-जीत के मतलब 
03/10/2015, नई दिल्ली। जैसे-जैसे बिहार विधानसभा के मतदान की तारीख नजदीक आ रही है सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच जुबानी जंग तेज होती जा रही है। इस जंग में सभी दल और सभी स्तर के नेता शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में बिहार भाजपा के सभी नेता अपने गठबंधन के सहयोगियों के साथ राजद प्रमुख लालू यादव, महागठबंधन के नेता नीतीश कुमार के अलावा अन्य विपक्षी नेताओं का सामना करने में कोई कोर-कसर नही छोड़ रहे हैं। लग रहा है जैसे बिहार विधानसभा चुनाव में समुचा बिहार राज्य जंग का मैदान बन गया है और कहावत के मुताबिक सबकुछ जायज है इस जंग के मैदान में।
           
प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा शासित केंद्र सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनावी परीक्षा बन चुकी ये चुनाव पर पूरे देश की ही नही बल्कि वैश्विक समुदाय की नजर है। प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष दोनो के लिए इस चुनाव ने करो या मरो की स्थिति पैदा कर दी है क्योंकि लोकसभा चुनाव 2014 के बाद सिवाय दिल्ली के कहीं भी हार से सामना नही हुआ है। इसके अलावा बिहार के लिए प्रधानमंत्री ने केंद्र की तिजोरी खोल कर रख दी है। अब इस दरियादिली के बाद भी अगर चुनाव में हार मिलती है तो सीधा सवाल केंद्र सरकार की नीतियों और विकास के मुद्दे पर होगा। इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष के उपर सवाल खड़े होंगे सो अलग। भाजपा अध्यक्ष के काम करने के तरीकों और दिल्ली में अपनायी चुनावी रणनीति को लेकर संघ परिवार पहले से ही संशय में है और ऐसे में बिहार की हार उनके लिए बहुत भारी पड़ेगी। वहीं सहयोगी लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान को लोकसभा चुनाव ने नई जिंदगी देने के साथ उनके सुपुत्र और राजनीतिक वारिस को भी सफलतापूर्वक लोकार्पित कर दिया है। इस चुनाव के जरिए वो अपने उत्तराधिकारी को और मजबूती देने की कोशिश में लगे हैं। एक और सहयोगी रालोसपा अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा के लिए इस चुनाव के जरिए अपने वोट बैंक के साथ-साथ अपनी राजनीति को एक बार फिर परखने का मौका मिलेगा। एनडीए में नये-नवेले शामिल जीतनराम मांझी को कोई बड़ी चिंता नही है। बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद उनके लिए अब नया करने को कुछ बचा नही है और वो केंद्र की राजनीति में जायेंगे इसकी संभावना नही बनती। उनकी चिंता सिर्फ इसबात पर होगी की किसी तरह अपने कुनबे को राजनीति में उतार दें और हो सके तो एक मजबूत प्लेटफॉर्म प्रदान कर दें।
         जहां तक महागठबंधन का सवाल है उसमें शामिल राजद अध्यक्ष लालू यादव के लिए यह चुनाव जीवन मरण के समान है। लोकसभा चुनाव में हुई दुर्गति और चारा घोटाले में मिली सजा के बाद उनका राजनीतिक कॅरियर लगभग अस्त हो चला है। उनके कुनबे में कोई इस लायक अभी तक उभर कर सामने नही आया है जो जातिवादी राजनीति की इस विरासत को संभाल सके। अगर इस चुनाव में हारे तो समझो मामला खत्म। 10 सालों तक बिहार की गद्दी संभाल चुके नीतीश कुमार भाजपा से अपने 16 साल पुराने गठबंधन को मोदी के नाम पर तोड़ कर अपने चिर-परिचित दुश्मन, जो अब फिर उनके बड़े भाई है, लालू यादव के साथ इस चुनाव के लिए गए हैं। लोकसभा में मिली करारी हार के बाद अगर इस बार भी हारे तो उनके राजनीतिक कॅरियर का अवसान लगभग तय होगा। मोदी के हाथों मिली एक और हार ये साबित कर देगा कि बिहार की जनता ने नीतीश और उनके विकास को नकार दिया है। महागठबंधन के हार के साथ ही विपक्ष के एकजुट होकर मोदी के मुकाबले के प्रयासों को भी बड़ा धक्का पहुँचेगा और फिर नये सिरे और तरीके से प्रयास करना होगा। इस चुनाव में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नही है जबकि पाने के लिए बहुत कुछ है। बिहार-यूपी में लगभग खत्म हो चुकी कांग्रेस भी इन राज्यों में अपनी जमीन नये सिरे से तलाश रही है और इसके लिए उसे वहाँ की क्षेत्रिय दलों के साथ जूनियर पार्टनर बनकर काम करना पड़ रहा है। अगर बिहार में हार मिलती है तो कांग्रेस के लिए भी सोंचने की बात होगी और उसे अपने नीतियों का अवलोकन फिर से करना होगा।
        इसमें से किन राजनेताओं का कॅरियर चमकेगा और किनका सितारा अस्त होगा ये तो बिहार की जनता तय करेगी। फिलहाल आपको और मुझे तो सिर्फ इंतजार करना है। इंतजार 8 नवंबर 2015 तक का....      

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