साहित्यकारों
का सम्मान
20/10/2015, नई दिल्ली।
देश में आजकल साहित्यकारों द्वारा सम्मान लौटाने का चलन चल पड़ा है। अबतक 28
साहित्यकारों ने सम्मान लौटाया है। उन्हे लगता है कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही
है और देश का सामाजिक ताना-बाना खतरे में है। ऐसा उन्हे इसलिए लगता है क्योंकि
केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है। हाल के दिनों में महाराष्ट्र और कर्नाटक में
साहित्यकारों पर हमले हुए और उत्तर प्रदेश के दादरी में एक व्यक्ति की भीड़ द्वारा
पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। देश के उन साहित्यकारों को लगता है कि केंद्र की सरकार
इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार है।
देश के साहित्यकारों को
सम्मानित करने का काम वर्ष 1955 से साहित्य अकादमी करती रही है। साहित्य अकादमी की
स्थापना 12 मार्च 1954 को तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा साहित्य और भाषा के विकास
के उद्देश्य से की गई थी। 24 भाषाओं में 24 पुरस्कार हर साल साहित्य अकादमी द्वारा
देश भर के साहित्यकारों को दिया जाता है। पुरस्कार देने के लिए अकादमी के अध्यक्ष
द्वारा हर भाषा के लिए तीन सदस्यों की एक समिति गठित की जाती है जो इस बात का
फैसला करती है कि किसे सम्मान दिया जाना चाहिए। 1955 से अब तक एक हजार से अधिक
साहित्यकारों को ये सम्मान अकादमी द्वारा दिया जा चुका है, लेकिन लौटाया सिर्फ 28
साहित्यकारों ने है।
जबसे केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी है तब से देश के ‘तथाकथित सेक्युलरों’ को ये लगने लगा है कि देश की धर्मनिरपेक्षता खतरे में है। उन्हें ये लगता है कि देश में सिर्फ अल्पसंख्यकों के हित की बात की जानी चाहिए और बहुसंख्यकों का हित कोई मायने नही रखता। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश का बहुसंख्यक कई वर्गों में विभाजित है और उन्हे लगता है कि वो कभी एकजुट होकर अपनी हित की बात नही कर सकता। देश का साहित्यकारों का बड़ा तबका राजनीति से प्रेरित रहा है। समय-समय पर उनके बयान और बरताव इसकी ओर इशारा भी करते रहें है। लेकिन ऐसा नही है कि निष्पक्ष और साफ-सुथरे साहित्यकार इस देश में नहीं हैं। साहित्यकार अपने कलम के माध्यम से हमारे समाज की दशा और दिशा को नये आयाम देते रहें है और आगे भी देंगे किंतु इसका ये मतलब नही कि निहित स्वार्थवश समाज को गलत धारा में मोड़ दिया जाये। अभिव्यक्ति की आजादी हमें भारत के संविधान से अधिकार के रूप में मिली है लेकिन वही संविधान उसी अनुच्छेद में इस आजादी के द्वारा दुसरों की भावनाओं का ख्याल रखने और समाजिक सौहार्द नही बिगाड़ने की पाबंदी भी लगाता है। ज्यादातर साहित्यकार इस आजादी को तो याद रखतें है लेकिन उस पाबंदी को भूल जाते है। वो ये भूल जाते है कि देश में सबकी भावनाओं की कद्र होनी चाहिए। किसी को भी ये अधिकार नही है कि किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करे और समाज को दिशा देने वालों को तो ये खास ख्याल रखना चाहिए। हमारे साहित्यकार अल्पसंख्यक की धार्मिक भावनाओं का ख्याल तो रखते हैं परंतु बात जब बहुसंख्यक की आती है तो उन्हें इसका जरा सा भी ख्याल नही आता। क्यों नही रखा जाता इस बात का ख्याल, इस सवाल का जवाब तलाशने की जरुरत है।
अब तक जितने
साहित्यकारों ने पुरस्कार लौटाया है उनमें से अधिकांश किसी खास विचारधारा से
प्रेरित प्रतीत होते हैं। ऐसा इसलिए लगता है कि देश में इससे पहले भी इससे बड़ी-बड़ी
घटनायें घटित हुई है। 1984 में सिक्ख दंगो के दौरान हुए नरसंहार, 1989 में भागलपुर
में हुए दंगे, 1990 में कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का कत्ल, 192-93 में मुबंई में
हुए दंगे, 2000 में जम्मू-कश्मीर के छितिसिंगपुरा में हुए नरसंहार, 1999-2000 में
हुए त्रिपुरा में दंगे, 2002 में गुजरात में हुए दंगे, 2012 में असम में हुए दंगे
और 2013 में हुए उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए दंगे जैसी अनेकों घटनायें इस
देश में हुई। तब क्या देश में सहिष्णुता थी और समाज का ताना-बाना तार-तार नही हुआ
था? उन किसी घटनाओं पर किसी साहित्यकार
ने क्यों नही आवाज उठायी? क्या
उन घटनाओं के लिए तत्कालीन सरकारें जिम्मेदार नहीं थी? अगर थी तो किसी ने अपना सम्मान
वापस क्यों नही किया?
आज जब केंद्र में मोदी
सरकार विकास के मुद्दे पर सारा धयान केंद्रित कर देश को एक नई दशा और दिशा देने के
लिए निरंतर प्रयासरत है ऐसे में इस तरह की घटनायें इस प्रयास को धक्का पहुँचाती है।
केवल व्यक्ति विशेष का विरोध करने के लिए किसी भी विषय को मुद्दा बनाना राजनीति से
प्रेरित सा लगता है। सम्मान लौटाने वाले साहित्यकारों में से अधिकांश को कांग्रेस
या यूपीए सरकार ने सम्मानित किया है। कहीं ऐसा तो नही कि ये पुरस्कार लौटाने का
कार्यक्रम प्रायोजित है? सोंचिए
जरा.....
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